
कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे (Kabir das ke dohe with Hindi meaning)
कबीर दास जी एक बुनकर थे। वे अधिकतर समय कपड़ा बुनने का ही काम करते थे। वे अद्भुत संत थे और वे अत्यंत गहन अनुभव रखने वाले व्यक्ति थे। लोग इस बात में ही उलझे रह गये कि संत कबीर हिन्दु थे या मुस्लिम?
उन्होंने अपने दोहे के माध्यम से लोगो को जगाने की कोशिश प्रयास किया। कबीर दास को टेढ़ी-मेढ़ी बातें करना पसंद नहीं था। उनका रास्ता बड़ा सीधा और साफ है। उन्होंने ‘लिखा लिखी’ की बात नहीं किया बल्कि ‘देखा देखी’ कि बात कही है।
कबीर दास जी के वचन अनूठे हैं। उन्होंने जो देखा वही कहा, जो चखा है, वही कहा है। सभी संत अदभुत हैं, मगर कबीर दास जी अदभुतों में भी अदभुत संत हैं
क्योकि उनके बयां करने का अंदाज, कहने का ढंग, कहने की मस्ती सबसे अलग है। आइये पढ़ते है संत कबीर दास जी अद्भुत दोहे।
कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे (Kabir das ke dohe with Hindi meaning)
दोहे – 01
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ। मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ॥
अर्थ – जो कोशिश करते हैं, वे कुछ न कुछ पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ ले कर ही वापस आता है। लेकिन कुछ बेचारे ऐसे भी लोग होते हैं जो डूबने के भय से जिंदगी भर किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं कर पाते।
दोहे – 02
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय। हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है रात को तुमने सो कर गवां दी और दिन को खाना खाकर गवां दिया। यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था, जिसे तुमने यु ही व्यर्थ कर दिया। अर्थात जीवन में कुछ सार्थक करो। समय को यु ही बर्बाद मत करो।
दोहे – 03
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल। कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा, गुना, सुना, सीखा पर फिर भी मन के भीतर के संशय का समाधान नही निकला। वे कहते हैं कि यह बात किससे कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है। ऐसे पढ़ने लिखने से क्या फायदा जो मन के संदेह को मिटा न सके।
दोहे – 04
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥
अर्थ – कबीर जी कहते है, अगर कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में मोती की माला लेकर घुमाता रहे, उससे उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की दुविधा का हल नहीं मिलता। अगर वह एक बार मन की माला का जाप करे तो उसके सारे दुविधा अपने आप ही सामप्त हो जायेगी।
दोहे – 05
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही। सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार था, तब मेरे ह्रदय में ईश्वर का वास नहीं था। और अब मेरे ह्रदय में ईश्वर का वास है तो अहंकार अपने आप मिट गया। जब से मैंने अपने जीवन में गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार खत्म हो गया है।
दोहे – 06
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान। मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥
अर्थ – अर्थात किसी सज्जन पुरुष की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए और उसे अपने जीवन में अपनाना चाहिए। जिस प्रकार तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी म्यान का, म्यान तो केवल एक खोल है। दुसरे शब्दो में किसी व्यक्ति के वेश भूषा पर ध्यान न देकर उसके गुण पर ध्यान देना चाहिए।
दोहे – 07
ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय। सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय॥
अर्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया लेकिन अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो वही बात हुई जैसे सोने के लोटे में जहर भरा हो, इसकी चारों ओर निंदा ही होती है।
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दोहे – 08
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर। ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर॥
अर्थ – कबीर इस संसार रूपी बाजार में अपने जीवन से बस यही चाहते हैं, कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं है तो दुश्मनी भी न हो। मतलब बिना भेद भाव के सबके साथ सामान व्यवहार हो।
दोहे – 09
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास। सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥
अर्थ – यह मानव शरीर नश्वर है। अंत समय में यह लकड़ी की तरह जलती है और उसके केश (बाल) घास की तरह जल उठते हैं। और इस तरह सम्पूर्ण शरीर को जलता देख, उसके अंत को देखकर, कबीर का मन उदासी से भर जाता है।
दोहे – 10
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं। जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते प्रकृति का यही नियम है कि जो उदय हुआ है, वह कल अस्त भी होगा। जो फूल आज खिला हुआ है वह कल मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है सो जाएगा।
दोहे – 11
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद। खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि अरे जीव, तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है। देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
दोहे – 12
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय। सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय॥
अर्थ – अर्थात उस धन को इकट्ठा करो, जो भविष्य में काम आए। मैने सिर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को आज तक नहीं देखा।
दोहे – 13
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर। आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि संसार में रहते हुए न तो माया मरती है न ही मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका लेकिन मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती। कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं। अर्थात आशाओ और तृष्णा का कोई अंत नहीं।
दोहे – 14
आछे/पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत। अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत॥
अर्थ – अर्थात अच्छा समय देखते ही देखते बीतता चला गया, तुमने प्रभु को याद नहीं किया। प्रेम नहीं किया। समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर दे। उसके बाद पछताने से कोई फायदा नहीं है।
दोहे – 15
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय। बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं जो आपकी निंदा करता हो, उस व्यक्ति को हमेशा अपने पास रखना चाहिए। अपने घर पर रखिये क्यकि ऐसा आदमी हमारी कमियां बता कर, हमारे स्वभाव को ऐसे साफ़ करता है मानो किसी ने बिना साबुन और पानी के हमारे शरीर को साफ कर दिया हो।
कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे

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दोहे – 16
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥
अर्थ – इस दोहे के माध्यम से कबीर दास बताना चाहते है कि केवल बड़े होने कुछ नहीं होता है। उसके लिए विनम्रता होना जरुरी है। खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाया दे पाता है और न ही उसके फल को आसानी से तोड़े जा सकता हैं।
दोहे – 17
झिरमिर-झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह। माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥
अर्थ – अर्थात यह जीवन थोड़े समय के लिए है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है। मनुष्य चाहे राजा हो या निर्धन, चाहे बादशाह हो। सब खड़े खड़े ही नष्ट हो गए।
दोहे – 18
यह तन काचा कुम्भ है, लिया फिरे था साथ। ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ॥
अर्थ – अर्थात जिस शरीर को तू साथ लिए घूमता फिरता था। वह शरीर कच्चा घड़ा के समान है, जो थोड़ी सी चोट लगते ही यह फूट जाएगा और उसके बाद कुछ भी हाथ नहीं आयेगा।
दोहे – 19
कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास। काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है जिस ऊंचे भवनों को देख कर तुम गर्व करते हो, कल या परसों ये ऊंचे भवन और आप भी इसी धरती में मिल जाओगे और ध्वस्त हो जाओगे। उनके ऊपर से घास उगने लगेगी। जो यह हंसता खिलखिलाता घर आँगन है, एक दिन वीरान सुनसान हो जाएगा। इसलिए इन्सान को कभी घमंड नही करना चाहिए।
दोहे – 20
कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि। दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि॥
अर्थ – कबीर दास जी शरीर की क्षण भंगुरता को समझा रहे है। वे कहते है यह शरीर लाख का बना मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं। यह केवल चार दिन का खिलौना है। शरीर नश्वर है, आज है कल नष्ट हो जाएगा। हम इसको कितने जतन करके मेहनत करके सजाते हैं इसकी क्षण भंगुरता को भूल जाते हैं। लेकिन सत्य तो यही है कि यह शरीर अचानक किसी कच्चे खिलौने की तरह टूट फूट जाती है और हम जान भी नहीं पाते।
दोहे – 21
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि। नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है कि यह शरीर नष्ट होने वाला ही है, होश में आ जाओ और इसे संभाल लो। जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी, वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए। इसलिए जीते जी केवल धन संपत्ति जोड़ने में ही मत लगे रहो। कुछ सार्थक भी कर लो। कुछ भले काम भी कर लो।
दोहे – 22
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए॥
अर्थ – अर्थात हमें ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बुरा न लगे। आपकी भाषा से दूसरे लोगों को ख़ुशी मिलता है तो आपका मन भी ख़ुश होगा। अर्थात कटु वाणी तीर की तरह चुभता है, इसका प्रयोग सोच समझकर करना चाहिए।

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दोहे – 23
मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै। काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े॥
अर्थ – अर्थात मन सारी बातों को जानता है कि क्या सही है क्या गलत। इसके बावजूद वह अवगुणों में फंस जाता है। जो हाथ में दीपक होने के बावजुद भी कुंए में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी?
दोहे – 24
करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय। बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है अगर तुम अपने आप को कर्ता समझते थे तो उस समय चुप क्यों बैठे रहे, जब तुमने बुरे कर्म किये? और अब बुरे कर्म करके पश्चात्ताप क्यों करते हो? अगर तुमने पेड़ बबूल का लगाया है तो आम खाने की इक्छा क्यों रखते हो?
दोहे – 25
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर। आसा त्रिष्णा णा मुई यों कहि गया कबीर॥
अर्थ – अर्थात न कभी माया मरती है और न कभी मन, शरीर न जाने कितनी बार मर चुका है। आशा, तृष्णा कभी नहीं मरती – ऐसा कबीर कई बार कह चुके हैं।
दोहे – 26
मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई। कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है कभी भी मूर्ख के साथ मत रहो। मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता और डूब जाता है। संगति के प्रभाव को आप इस बात से समझ सकते है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है।
दोहे – 27
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी। मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे॥
अर्थ – कबीर दस जी कहते है, तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य कहते हो। तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा हुआ है। लेकिन मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ। कबीर पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सत्य था। वे कहते है मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ। तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो। जितने तुम सरल बनोगे उतने अपने आप को उलझन से दूर हो पाओगे।
दोहे – 28
मन के हारे हार है मन के जीते जीत। कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत॥
अर्थ – कबीर दास जी मन की शक्ति को बता रहे है। मन में आदमी पहली बार हारता या जीतता है। जीवन में जय पराजय मन की ही भावनाएं हैं। यदि मनुष्य मन में हार गया तो उसकी पराजय निश्चित है और यदि उसने मन को जीत लिया तो उसकी जीत पक्की है। ईश्वर को भी हम अपने मन के विश्वास से ही पा सकते हैं। यदि आपको भरोसा ही नहीं होगा तो आप कैसे पाएंगे?
दोहे – 29
साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं। धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं॥
अर्थ – अर्थात साधु भाव का भूखा होता है वह केवल भाव को ही जानता है। वह धन का लोभी नहीं होता। जो साधु धन का लोभी है वह तो साधु नहीं हो सकता।
दोहे – 30
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥
अर्थ – अर्थात बड़ी बड़ी किताबे पढ़ने से कोई ज्ञानी नहीं होता। ऐसे कितने लोग संसार में आये और वे मृत्यु के द्वार पर पहुँच गए। लेकिन अगर कोई प्रेम के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह समझ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा पंडित हैं।
कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे (Kabir das ke dohe with Hindi meaning)

दोहे – 31
कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर। जो पर पीर न जानई सो काफिर बेपीर॥
अर्थ – कबीर दस जी कहते हैं कि सच्चा पीर वही है जो दूसरे की पीड़ा को जानता है। जो दूसरे के दुःख को नहीं जानते वे निष्ठुर और काफिर हैं।
दोहे – 32
हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार। कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है कि दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं, उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है, उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है। समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है। जब सब का अंत यही होना है तो मै किससे गुहार करूं और विनती करूं? सभी तो एक नियति से बंधे हैं। सभी का अंत एक है।
दोहे – 33
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग। तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग॥
अर्थ – अर्थात बगुले का शरीर तो उजला है पर मन काला है यानी कपट से भरा है। उससे तो कौआ अच्छा है जिसका तन और मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है।
दोहे – 34
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं। पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते इस संसार में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के है। जिस तरह नांव के नदी पार पहुँचने पर सभी यात्री बिछुड़ जाते हैं। वैसे ही हम सब मिलकर एक दिन बिछुड़ जायेगे। सारे सांसारिक सम्बन्ध यहीं पर छूट जाने वाले है।
दोहे – 35
एकही बार परखिये ना वा बारम्बार। बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥
अर्थ – अर्थात किसी व्यक्ति को बस एक बार ही परखने से पता चल जाता है। उसे बार बार परखने की जरुरत नहीं होती है। जिस तरह रेत को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी किरकिराहट दूर नही होती। उसी प्रकार एक मूढ़ दुर्जन को बार बार परखने पर भी वह हमेशा अपनी मूढ़ता दुष्टता से भरा ही मिलेगा। अर्थात सही व्यक्ति की परख एक बार में ही हो जाती है।
दोहे – 36
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर। अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं जिस तरह नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका पानी कभी घटता। उसी प्रकार धर्म यानी परोपकार और दान सेवा करने से धन कभी नहीं घटता। धर्म करके आप स्वयं ही देख लीजिये।
दोहे – 37
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय। जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं हम जैसा भोजन करते हैं वैसा ही हमारा मन बन जाता है और जैसा हम पानी पीते हैं वैसी ही हम वाणी बोलते हैं। अर्थात जिस तरह की संगती हम रहते है वैसा हमारा व्यवहार बन जाता है।
दोहे – 38
तिनका कबहूँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय। कबहूँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय॥
अर्थ – अर्थात कभी भी एक छोटे तिनके को छोटा समझ के उसकी निंदा नही करना चाहिए। तिनका अगर पैरों के नीचे आये तो वो बुझ जाता हैं लेकिन अगर उड़कर आँख में चला जाये तो बहुत बड़ा घाव देता हैं।
दोहे – 39
धीरे–धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।
दोहे – 40
गुरु गोविंद दोनो खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जब आपके सामने गुरु और खुद भगवान एक साथ खड़े हों तब सबसे पहले अपने गुरु का ही प्रणाम करें क्यकि जिसने ईश्वर से आपको मिलाया है वही उत्तम है और उसकी ही कृपा से आपको ईश्वर से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। गुरु के बिना ज्ञान असंभव है।
दोहे – 41
कबीर कलियुग कठिन है, साधु न माने कोय। कामी क्रोधी मस्खरा, तिन्ह का आदर होय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है कलियुग में रहना अत्यंत ही कठिन है क्योंकि इस युग में सद्पुरुषों का कोई आदर सम्मान नहीं करेगा। कलियुग में तो जो व्यसनों में लिप्त होगा, जो बात बात पर क्रोध करता होगा, उनका ही आदर सम्मान किया जाएगा।
दोहे – 42
धन रहे न योवन रहे, रहे गाँव न धाम। कहे कबीरा बस जस रहे, कर दे किसी का काम॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं धन, जवानी और संसार सब नश्वर हैं। व्यक्ति के द्वारा किया गया अच्छा कर्म ही अनश्वर होता है जो उसके नाम को अमर कर देता है। इसलिए इंसान को दूसरों की भलाई के लिए प्रयास करते रहना चाहिए।
दोहे – 43
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए॥
अर्थ – कबीर दास जी ने मन की शुद्धता को शरीर की शुद्धता से ऊपर माना है। वे कहते है कि ऐसे नहाने से क्या फ़ायदा अगर उससे मन का मैल ही नहीं जाए। मछली हमेशा पानी में ही रहती है, पर फिर भी उसे कितना भी धोइए, उसकी बदबू नहीं जाती।
दोहे – 44
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये। ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये॥
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे तब सारे परिवार के लोग खुश थे और हम रो रहे थे। अपने जीवन में कुछ ऐसा काम कीजिए कि अगर आप मरे तो आप तो हँसेंते हुए जाये और लोग रोते हुए आपको याद करे।
दोहे – 45
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥
अर्थ – जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो यहाँ मुझे कोई बुरा नही मिला। जब मैंने अपने मन के अंदर झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई भी नहीं है।
कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे

दोहे – 46
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि–गढ़ि काढ़ै खोट। अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
अर्थ – कबीर दास जी ने गुरु-शिष्य की तुलना कुम्हार और घड़े से किया है। वे कहते है गुरु, एक कुम्हार की तरह है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घड़े के समान है, अर्थात जिस तरह कुम्हार, घड़े को सुन्दर बनाने के लिए घड़े को अंदर से हाथ का सहारा देता है और बाहर से चोट मारता है। उसी प्रकार गुरु शिष्य को अनुशासन की चोट और प्रेम का सहारा देकर गढ़ता है। ताकि वह एक अच्छा शिष्य बन सके।
दोहे – 47
कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढत बन माहि। ज्यों घट घट में राम हैं दुनिया देखत नाहि॥
अर्थ – अर्थात जिस प्रकार एक कस्तूरी हिरण कस्तूरी की सुगंध को जंगल में ढूंढता रहता है जबकि वह सुगंध उसके ही नाभि में होती है। लेकिन उसे पता नहीं होता। उसी प्रकार इस संसार के हर कण में ईश्वर मौजुद है लेकिन मनुष्य उसे कभी मंदिरो तो कभी तीर्थों में ढूंढता रहता है।
दोहे – 48
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि यह जो शरीर है वह विष यानि जहर से भरा एक पौधे के समान है और गुरु अमृत की खान की भांति हैं। अगर गुरु के अमृत पाने के बदले अपना शीश (सर) भी देना परे तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है।
दोहे – 49
तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ। मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है सारे मनुष्य अपने स्वार्थ के कारण तुमसे बंधे हुए हैं। जब तक इस बात की समझ मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आप आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता। अर्थात इस सत्य को जान लेना की सारे लोग आपके साथ अपने स्वार्थ के कारण आपसे जुड़े हुए है तभी आपका मन आत्मा की तरफ मुड़ता है।
दोहे – 50
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं खजूर के पेड़ के भाँति बड़े होने का कोई फायदा नहीं है। खजूर का पेड़ बेशक बहुत बड़ा होता है लेकिन ना तो वो किसी यात्री को छाया देता है और फल भी इतनी ऊँचाई पर लगता है कि इसे आसानी से तोड़ा भी नहीं जा सकता। अर्थात ऐसे बड़े होने से भी कोई फायदा नहीं है अगर आप किसी का भला नहीं करते।
दोहे – 51
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात। देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात॥
अर्थ – अर्थात मनुष्य की इच्छाएं पानी के बुलबुले के समान हैं जो पल भर में बनती हैं और पल भर में खत्म। जिस दिन आपको अपने सच्चे गुरु के दर्शन होंगे उस दिन ये सारे मोह माया और सारा अंधकार समाप्त जायेगा।
दोहे – 52
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये। दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए॥
अर्थ – चक्की को चलता देखकर कबीर दास जी के आँसू निकल आते हैं क्योकि यह संसार की क्षण भंगुरता को दर्शाता है। जिस प्रकार चक्की के बीच में कुछ भी साबुत नहीं बचता। उसी प्रकार जन्म-मृत्यु के पाटों के बीच में मनुष्य का नष्ट होना निश्चित है।
दोहे – 53
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं शुभ काम को कल पर मत टालो। कल के सारे काम आज ही कर लो, और आज के काम अभी, क्योंकि समय का कोई भरोसा नहीं है। हमारे पास समय बहुत कम है।
दोहे – 54
ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग। तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं जैसे तिलों में तेल है और चकमक पत्थरों में आग है, लेकिन हमें दिखाई नहीं देता। ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही विद्धमान है। अगर आप ढूंढ सकते हो तो ढूंढ लो।
दोहे – 55
जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान। जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण॥
अर्थ – अर्थात जिसके हॄदय में प्रेम नहीं है, वह श्मशान के समान सूना, भयावह और मॄत प्रायः होता है। वैसे ही लोहार की खाल में जो चमड़ी होती है वह मॄत पशु की होती है फिर भी वह साँस लेती है। अर्थात प्रेम ही जीवन है, जिस इंसान के अंदर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना नहीं है वो इंसान पशु के समान है।
दोहे – 56
ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग। प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं जीवन के वे दिन व्यर्थ ही व्यतीत हुए, जिन दिनों में संतों की संगति प्राप्त नहीं हुई। प्रेम बिना जीवन पशु के समान है और भक्ति के बिना इंसान को भगवान की प्राप्ति नहीं होती है।
दोहे – 57
तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार। सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है कि तीर्थ यात्रा करने से तुम्हे एक फल की प्राप्ति होती है और संत महात्माओ के सत्संग करने से चार फलोँ की प्राप्ति होती है। लेकिन अगर जब सद्गुरु ही मिल जाएं तो जीवन में अनेक पुण्य की प्राप्ति हो जाती है।
दोहे – 58
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि। हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि॥
अर्थ – कबीर दास जी वाणी की महत्ता को बताते हुए कहते है, बोली अत्यंत अनमोल है अगर कोई इसका सही उपयोग जानता है। इस लिए शब्दों को हृदय रूपी तराजू में तोलकर ही मुख से बोलना चाहिए।
दोहे – 59
तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय। सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि शरीर पर भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना कोई विरला ही करता है। जिस दिन मन योगी हो जाए उस दिन सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जायेगी।
दोहे – 60
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार। तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार
अर्थ – कबीर दास जी कहते है इस संसार में मनुष्य का जन्म बहुत ही मुश्किल से मिलता है। इसे व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए। जिस प्रकार वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता, उसी प्रकार यह मानव शरीर बार-बार नहीं मिलता।
कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे

दोहे – 61
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय। जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय॥
अर्थ – कबीर दास जी संत की संगति का यह महत्व को बताते हुए कहते है। राम का बुलावा सुन कर कबीर को रोना आ गया क्योकि साधु की संगति में जो सुख उन्हें मिलता है वह प्रभु के निवास वैकुण्ठ में नहीं प्राप्त होगा।
दोहे – 62
ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार। हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं ये संसार तो मिट्टी के समान है, आपको ज्ञान पाने की कोशिश करनी चाहिए। अगर ज्ञान नहीं पाया तो मृत्यु के बाद जीवन और फिर जीवन के बाद मृत्यु, यही क्रम चलता रहेगा।
दोहे – 63
आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर। इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर॥
अर्थ – अर्थात जो इस संसार में आया है उसे एक दिन संसार से विदा होना ही पडेगा। चाहे वह राजा ही क्यों न हो या फ़क़ीर ही क्यों न हो। अंत समय जब आयेगा , यमदूत सबको एक ही जंजीर में बांध कर ले जायेंगे।
दोहे – 64
लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट। अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि अभी समय है। अगर राम की भक्ति करनी है तो अभी कर लो, क्योकि जब अंत समय तुम्हारा आएगा तो पछतावा के अलावा तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं आयेगा।
दोहे – 65
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त। अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है कि आदमी दूसरों के अंदर की बुराइयों को देखकर, उनके दोषों को देखकर तो हँसता है लेकिन उसे अपने दोषों कभी नहीं दिखाई देता। जिसका ना कोई आदि है न ही अंत है।
दोहे – 66
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही अच्छा है। जैसे कि बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
दोहे – 67
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए। वैद बेचारा क्या करे, कितना मरहम लगाए॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि चिंता वो अदृश्य डायन है जो मनुष्य के हृदय पर आघात करती है। यह समुद में जवालामुखी की तरह है, जो किसी को दिखाई नहीं देता है। इसका इलाज कोई वैद्य भी नहीं कर सकता है, चाहे वह कितना भी मरहम लगा दे।
दोहे – 68
जीवन जोबन राजमद, अविचल रहे न कोय। जो दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय॥
अर्थ – अर्थात इस संसार में, जीवन, जवानी एवं शक्ति का नशा हमेशा के लिए नहीं होता है, यह तीनों समय के अनुसार बदलते रहते है। आज हैं तो कल नहीं। लेकिन जो समय हम अच्छे एवं भले लोगों के विचारों को सुनने तथा सत्संग में लगाते हैं वही हमेशा के लिए स्थाई होता है। यही जीवन के परिश्रम का फल है।
दोहे – 69
ऐसी गति संसार की, ज्यों गाडर की ठाट। एक पडा जो गाड में, सभी गाड में जात॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि इस संसार के लोग की चाल भेंड़ के झुण्ड के समान है। जिस प्रकार एक भेंड़ के पीछे-पीछे पुरे भेड़ो का झुण्ड चलता है और अगर एक भेड़ गड्ढ़े में गिरता है तो बाकि सारे भेड़ गड्ढ़े में गिरते चले जाते है। उसी प्रकार इस संसार में मनुष्य भी एक दूसरे को देख कर बिना सोचे समझे गलत राह पर चलने लगते है।
दोहे – 70
कबीर बैरी सबल है, एक जीव रिपु पांच। अपने अपने स्वाद को, बहुत नचावे नाच॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य तुम अपने पांच इन्द्रियो से सावधान रहो। क्युंकि तुम तो अकेला हो परन्तु वे तो पांच हैं। ये पांच इन्द्रिया अपने लाभ के लिए तुम्हे तरह-तरह के प्रलोभन देती हैं और तुझे यहाँ वहाँ भटकने पर मजबूर करती है। इसलिए तुम इसका दास न बनकर इसका मालिक बन।
दोहे – 71
बहुत गई थोडी रही, व्याकुल मन मत होय। धीरज सब का मित्र है, करी कमाई न खोय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं जीवन की कठिनाइयों को देख कर हमें घबड़ाना नहीं चाहिए। हमें धैर्य रखते हुए कठिनाइयों का सामना करना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि थोड़ी देर की जल्दबाज़ी के कारण, अब तक जो आपने परिश्रम किया है वह व्यर्थ हो जाए।
दोहे – 72
आगि आंच सहना सुगम, सुगम खडग की धार। नेह निबाहन एक रस, महा कठिन व्यवहार॥
अर्थ – इस संसार में अग्नि की लपट को सहना आसान है, यहाँ तक की इन्सान तलवार की धार को भी सह सकता है। इस संसार में लेकिन कुछ कठिन है तो वह यह है किसी के साथ एक जैसा प्रेम का सम्बन्ध बनाये रखना। क्योंकि समय के साथ व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आना स्वाभाविक है।
दोहे – 73
सबकी सुने अपनी कहे, कह सुन एक जो होय। कहैं कबीर ता दास का, काज न बिगडे कोय॥
अर्थ – अर्थात जो व्यक्ति पहले सबके विचारों को शांति के साथ सुनता है, उसके बाद अपने विचारों को व्यक्त करता है तथा समझदारी एव सबकी सहमति से किसी भी समस्या का निर्णायक अंत देता है, ऐसे व्यक्ति का कोई काम कभी विफल नहीं होता है।
दोहे – 74
करनी बिन कथनी कथे, अज्ञानी दिन रात। कूकर सम भूकत फिरे, सुनी सुनाई बात॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि अज्ञानी व्यक्ति काम कम और बातें अधिक करते हैं और वे सुनी सुनाई बातों को ही रटते हुए, कुत्तों कि भांति हर गली में जा कर भोंकते रहते हैं। वे अपने तर्क का उपयोग नहीं करते ।
दोहे – 75
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे। एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे॥
अर्थ – मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तुम आज मुझे रौंद रहे हो, एक दिन ऐसा भी आयेगा जब मैं तुम्हें रौंदूंगी और तुम भी मिट्टी में विलीन हो जाओगे।
कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे

दोहे – 76
चिड़िया चोंच भरि ले गई, घट्यो न नदी को नीर। दान दिये धन ना घटे, कहि गये दास कबीर॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जिस तरह चिड़िया के चोंच भर पानी ले लेने से नदी के जल कम नहीं होता, ठीक उसी प्रकार ज़रूरतमंद की मदद करने से धन में कोई कमी नहीं होती।
दोहे – 77
दुर्बल को न सताइये, जा की मोटी हाय। बिना जीव की श्वास से, लोह भसम हो जाय॥
अर्थ – अर्ताथ शक्तिशाली व्यक्ति को कभी भी दुर्बल व्यक्ति को सताना नहीं करना चाहिए क्योंकि दुखी व्यक्ति के ह्रदय कि हाय बहुत खतरनाक होती है। जिस प्रकार लोहार कि चिमनी निर्जीव होते हुए भी लोहे को भस्म करने कि शक्ति रखती है ठीक उसी प्रकार दुःखी व्यक्ति कि बद्दुआ से सारे कुल का नाश हो जाता है।
दोहे – 78
हेत बिना आवे नहीं, हेत तहां चली जाय। कबीर जल और संतजन, नमे तहां ठहराय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं अगर प्रेम का सम्बन्ध न हो तो कोई किसी से मिलने भी नहीं जाता और जहां प्रेम होता है वहाँ दूरी कोई मायने नहीं रखती। कबीर दास जी कहते है जल एवं साधु कि प्रकृति एक जैसी ही होती है उन्हें जहां झुकाव नज़र आता है उस ओर चल पड़ते हैं।
दोहे – 79
माया का सुख चार दिन, काहे तूं गहे गमार। सपने पायो राजधन, जात न लागे बार॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं मनुष्य को अपने धन का होने का घमंड कभी नहीं करना चाहिए। क्योकि धन एवं सामर्थ्य का होना मात्र एक स्वप्न कि भांति हैं। जो आँखे खुलते ही ओझल हो जाता है। अतः इसके मद में कभी भी अंधे होकर मानवता को नहीं भूलना चाहिए।
दोहे – 80
खाय पकाय लूटाय ले, करि ले अपना काम। चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं मनुष्य तेरे पास जो भी साधन है उसका स्वयं के लिये उपयोग कर ले, और कुछ ऐसी व्यवस्था कर जिससे कि वे दूसरों के काम भी आ सके। अपने जीवन को परोपकारी एवं सार्थक कार्य में लगा ले, क्योंकि संसार से विदा लेते समय कुछ भी तेरे साथ नहीं जाएगा।
दोहे – 81
मन चलता तन भी चले, ताते मन को घेर। तन मन दोनों बस करे, होय राई से मेर॥
अर्थ – कबीर दास जी मन की शक्ति के बारे में बताते हुए कहते हैं कि मनुष्य का मन जहाँ जाता है तन भी उसी का अनुशरण करता है। इसलिए अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने के लिए सर्वप्रथम अपने मन को काबू करना पड़ता है। अगर तन और मन दोनों ही व्यक्ति के नियंत्रण में हो जाएं, तो यह राई के समान दिखने वाला सामान्य जीवन भी एक पर्वत कि भाँति विशाल एवं सुखद हो जायेगा।
दोहे – 82
मन राजा मन रंक है, मन कायर मन शूर। शून्य शिखर पर मन रहे, मस्तक पावे नूर॥
अर्थ – अर्ताथ किसी व्यक्ति कि मन कि शक्ति अर्थात उसकी इच्छा शक्ति ही, उसे राजा या रंक बनाती है। इच्छा शक्ति के बिना व्यक्ति कायर हो जाता है और इसकी ही शक्ति से शूर-वीर हो कर ख्याति अर्जित भी करता है। यदि मन कि शक्ति प्रबल है, तो ही मस्तिष्क को ज्ञान रुपी नूर कि प्राप्ति हो सकती है।
दोहे – 83
कर बहियां बल आपनी, छांड बिरानी आस। जाके आंगन नदिया बहे, सो क्यों मरे पियास॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि इन्सान को अपने मेहनत पर भरोसा करके अपना कार्य करना चाहिए, किसी और के ऊपर आश्रित रहने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि जिस व्यक्ति को प्यास लगी होती है उसे ही जल का महत्व पता होता है। जिसके पास पहले से ही नदी बहती हो, वो प्यास कि पीड़ा को नहीं समझ सकता।
दोहे – 84
एक बुन्द से सब किया, नर नारी का काम। सो तूं अंतर खोजी ले, सकल व्यापक राम॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि ईश्वर ने इस सृष्टि में सभी जीवों को एक ही स्रोत से उत्पन्न किया है चाहे वह नर, नारी अथवा पशु ही क्यों न हो। यदि तुम चाहो तो अपने अंदर खोजने का प्रयत्न कर के देख लो तुम्हे हर प्राणी में राम ही राम व्याप्त नज़र आएँगे।
दोहे – 85
कबीरा दुनिया देहरे, सीस नमावन जाय। हिरदय मांहि हरि बसे, तूं ताहि लौ लाय॥
अर्थ – अर्थात सारी दुनिया मंदिर में रखी हुई पत्थर की मूर्ति को इश्वर मान कर, उनके सामने सर झुकाने के लिए जाती है, जबकि अपने ही ह्रदय में बसे ईश्वर से कोई मन नहीं मिलाता है।
दोहे – 86
आसन मारे क्या भया, मरी न मन की आस। तैली केरा बैल ज्यों, घर ही कोस पचास॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं बिना अपने मन के विचारों को नियंत्रण किये बिना आसन अथवा तप करना ठीक वैसा ही है जैसे कि कोई कोल्हू का बैल तेल निकालने के लिए एक ही स्थान पर कोसों चलता है। अर्थात वह एक ही स्थान पर धूमते रहता है पहुँचता कहीं भी नहीं है।
दोहे – 87
बहुत पसारा मत करो, कर थोडे की आश। बहुत पसारा जो किया, सो भी गये निराश॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं इन्सान को अपनी आवश्यकता के अनुसार ही अपनी इच्छाएं रखनी चाहिए। उसे कभी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं की कामना नहीं करनी चाहिए। क्यूंकि जिन्होंने अपनी आवश्यकता से अधिक धन अथवा भौतिक सुखों का सृजन किया है वो भी इस नश्वर संसार से खाली हाथ ही गए हैं।
दोहे – 88
मन की मंशा मिट गई, अहं गया सब छूट। गगन मंडल में घर किया, काल रहा सिर कूट॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं अहंकार को छोड़ते ही मन के सारे लालच एवं इच्छाएं मिट जाती हैं और इसे देखकर असमान में छिपा काल भी परेशान हो रहा है क्योंकि अब उसे मेरा सर्वनाश करने के लिए मेरे भीतर अहंकार नहीं मिल रहा है।
दोहे – 89
राम-रहीम एक है, नाम धराया दोय। कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं राम और रहीम दोनों एक ही परम शक्ति के दो अलग-अलग नाम हैं। ये दो अलग अलग नाम सुन कर अपने मन में भ्रम पैदा नहीं होना चाहिए।
दोहे – 90
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय। जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय॥
अर्थ – जब जीवन में सुख रहता है, उस समय तो हम ईश्वर को याद नहीं करते। लेकिन जब जीवन में दुःख आता है तो उस समय हम ईश्वर को याद करने लग जाते है। अगर सुख में ही ईश्वर को हम याद करे तो कोई दुःख होगा ही नहीं।
कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे

दोहे – 91
सुरापान अचमन करे, पिवे तमाखू भंग। कहैं कबीर जो राम जन, ता को करे न संग॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं जो व्यक्ति एक चम्मच भी शराब का सेवन करता हो और जो व्यक्ति तम्बाखू एवं भांग का आदि हो, उसकी संगत कभी नहीं रखनी चाहिए। क्योकि कुछ न कुछ संगत का असर आपके ऊपर जरूर पड़ेगा।
दोहे – 92
सब ही भूमि बनारसी, सब नीर गंगा तोय। ज्ञानी आतम राम है, जो निर्मल घट होय॥
अर्थ – संत कबीर दास जी कहते हैं जिसका मन निर्मल होता है उसके लिए सारे स्थान बनारस की पवित्र भूमि के समान ही पवित्र हैं और सभी नदी गंगा माँ की तरह निर्मल है। अर्थात अगर व्यक्ति का मन पवित्र हो तो उसके लिए यह संसार भी बैकुंठ से कम नहीं है।
दोहे – 93
कर्म करे किस्मत बने जीवन का यह मर्म। प्राणी तेरे हाथ में तेरा अपना कर्म॥
अर्थ – अर्थात कर्म करने से ही भाग्य का निर्माण होता है और जीवन का यही रहस्य है। मनुष्य का कर्म उसके स्वयं के हाथों में होता हैं। भाग्य का साथ देना और न देना इन्सान के अपने ही हाथों में होता है। नसीब को दोष देने से कोई लाभ नहीं होने वाला।
दोहे – 94
कबीरा भेष अतीत का, अधिक करे अपराध। बाहर दीसे साधु गति, अंतर बडा असाध॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं अगर किसी व्यक्ति का वेशभूषा सन्यासी जैसा है किन्तु वह बड़ा अपराधी है। अर्थात बाहर से वह साधु जैसा व्यवहार करता है परन्तु अंदर से वह अत्यंत दुष्ट है। ऐसे वेश धारी साधुओं से सावधान रहना चहिए।
दोहे – 95
अक्कल बिहूना सिंह ज्यों, गयो सस्सा के संग। अपनी प्रतिमा देखी के, कियो तन को भंग॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है व्यक्ति के पास शक्ति के साथ साथ विवेक भी होनी चाहिए। यदि विवेक नहीं तो बल व्यर्थ है, जिस प्रकार एक मुर्ख शेर एक खरगोश के कहने पर कुंआ में अपनी ही परछाई को कोई अन्य शेर समझ कर, उसमें कूद कर मर जाता हैं। वैसे ही मुर्ख बलवान इन्सान का भी अंत हो जाता है।
दोहे – 96
मन के मते ना चालिये, मन के मते अनेक। जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक॥
अर्थ – कबीर जी कहते हैं मन के नियंत्रण में हो कर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए क्योंकि मन में तो अनेकों सही और गलत विचारो से भरा पड़ा हैं। जो मन को अपने अधीन रख सके, ऐसा सामर्थ्य सैकड़ों सद्पुरुषों में कोई विरला के पास ही होता है।
दोहे – 97
पलटूं शुभ दिन शुभ घड़ी, याद पड़े जब नाम। लगन महूरत झूठ सब, और बिगाडें काम॥
अर्थ – कबीर जी कहते हैं जब मैं पुराने बात को याद करता हूँ। तब मुझे एक बात समझ आती है कि ये शुभ मुहूर्त और शुभ लगन सब एक झूठा प्रपंच मात्र है। इसके कारण केवल विलम्ब ही होता है और काम भी ख़राब हो जाता है। इसलिए जो भी करना है उसके लिए आज और अभी से बेहतर, कोई वक़्त नहीं है।
दोहे – 98
जग माहीं ऐसे रहो ज्यूँ अम्बुज सर माहीं। रहे नीर के आसरे पर जल छूवत नाहीं॥
अर्थ – अर्थात जिस तरह कमल का फूल सरोवर में रह कर भी जल को स्पर्श नहीं करता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी, इस संसार में रहते हुए सांसारिक विकारों और बुरी संगति से दूर रहना चाहिए।
दोहे – 99
बंधे को बंधे मिले, छूटे कौन उपाय। जो मिले निर्बंध को, पल में लिया छूडाये॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जो इन्सान खुद ही बंधन में हो और आप ऐसे इन्सान के पास अपने बंधन से मुक्त होने के लिए जाए, ऐसे व्यक्ति से आशा रखना मूर्खतापूर्ण है। जो व्यक्ति स्वच्छंद विचार वाला एवं ज्ञानी है। वह आपके मन के संदेह अथवा प्रश्न के बंधन को पल भर में खोल देगा।
दोहे – 100
जो कोई निन्दे साधु को, संकट आवे सोए। नरक जाए जन्मे मरे, मुक्ति कबहु ना होए॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं जो व्यक्ति किसी साधु पुरुष कि निंदा करता है। उसके जीवन में तरह तरह के संकट आते रहते हैं और ऐसा व्यक्ति जन्म मरण के चक्कर से कभी मुक्ति नहीं पा सकता है।
दोहे – 101
प्रेम बिना धीरज नहीं, बिरह बिना बैराग। सतगुरु बिना मिटते नहीं, मन मनसा के दाग॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जिसके ह्रदय में प्रेम नही है, वह धैर्य का अर्थ भी नहीं समझ सकता और बिरह कि वेदना को केवल एक बैरागी ही समझ सकता है। जिस तरह प्रेम एव धीरज और बिरह एव बैराग का सम्बन्ध होता है। उसी प्रकार गुरु और शिष्य के बीच ह्रदय का सम्बन्ध होता है। बिना गुरु के, शिष्य के मन से इच्छाओं मिटाया नहीं जा सकता।
दोहे – 102
कबीरा लहरें समुद्र की, मोती बिखरे आये। बगुला परख न जानही, हंसा चुन चुन खाए॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं जीवन हर क्षण हमे अवसर प्रदान करता रहता है आपको इसे पहचानना है। वैसे ही जैसे समुद्र कि लहरें मोतियों को अपने साथ किनारों तक बहा कर लाती हैं जिन्हें बगुला पहचान नहीं पाता। लेकिन हंस उन मोतियों को कंकडों के बीच से चुन चुन कर खाता है।
दोहे – 103
अति हठ कर ना बावरे, हठ से कुछ ना होए। ज्यों ज्यों भीजे कामारी, त्यों त्यों भारी होए॥
अर्थ – अर्थात व्यक्ति को लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यकता से अधिक उतावलापन नहीं दिखाना चाहिए क्योंकि ज्यादा उतावलापन से नुक्सान ही होता है। मनुष्य को संतुलित मन से काम कोई काम करना चाहिए। नमक से भरी हुई बोरी धीरे धीरे पानी गिरने से भारी होती जाती है। इसलिए सब्र से काम लेने से सभी काम पुरे होते हैं।
दोहे – 104
श्रम से ही सब कुछ होत है, बिन श्रम मिले कुछ नाही। सीधे ऊँगली घी जमो, कबसू निकसे नाही॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि श्रम से सब कुछ सम्भव है। जिस प्रकार जमे हुए घी को सीधी ऊँगली से निकलना कठिन है, ठीक वैसे ही बिना परिश्रम के लक्ष्य को प्राप्त करना सम्भव नहीं है।
दोहे – 105
साईं इतना दीजिए, जा में कुटम समाय। मै भी भूखा न रहूं, साधू न भूख जाय॥
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि परमात्मा इतनी हमें देना की मै और मेरा परिवार सुख से रहे और भूखा न रहे। और अगर कोई साधु संत या अतिथि हमारे घर आये तो वो भी हमारे घर से भुखा न जाए।
कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे

दोहे – 106
कबीरा धीरज के धरे हाथी मन भर खाए। टूक टूक बेकार में स्वान घर घर जाये॥
अर्थ – अर्थात मनुष्य को कोई भी काम धीरज के साथ करना चाहिए। जल्दबाजी में किया गया काम में कई गलतियां हो जाती है। जिस प्रकार हाथी अपने भोजन को धीरे-धीरे खाता है, जिससे उसे एक बार भोजन करने बाद पूर्ण संतुष्टी मिलती है। वही दूसरी ओर कुत्ता इधर उधर भागता फिरता है और हर घर से उसे केवल एक-एक रोटी के टुकड़े से संतुष्ट होना पड़ता है।
दोहे – 107
कबीरा दर्शन साधु के, करत ना कीजै कानि। जो उधम से लक्ष्मी, आलस मन से हानि॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं अच्छे इन्सान से मिलने से कभी मना नहीं करना चाहिए। केवल श्रम से ही वैभव की प्राप्ति की जा सकती है और आलस्य से केवल हानि ही हानि होती है।
दोहे – 108
कबीरा इस संसार का झूठा माया मोह। जिस घर जितनी बधाइयाँ उस घर उतना अंदोह॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं इस जगत में सांसारिक सुख केवल मोह माया है। क्योंकि इश्वर ने सभी को सुख और दुःख सामान रूप से दिए हैं। जिसको जितना सुख होता है उतना उसको ही दुःख भी होता है।
दोहे – 109
कबीर गाफील क्यों फिरय, क्या सोता घनघोर। तेरे सिराने जाम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है ये मनुष्य तुम भ्रम में क्यों जी रहे हो और तुम गहरी नींद में क्यों सो रहे हो? तुम्हारे पास में ही मौत खड़ी है वैसे ही जिस प्रकार अंधेरे में चोर छिपकर खड़ा होता है।
दोहे – 110
कबीर जीवन कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ। कलहि अलहजा मारिया, आज मसाना ठीठ॥
अर्थ – कबीर दास जी जीवन की अनिश्चिता को बताते हुए कहते है कि जीवन अगर इस क्षण मे खारा तो अगले क्षण में मीठा भी हो जाता है। जो योद्धा वीर कल दुसरो को मार रहे थे, आज वे स्वयं श्मसान में मरे पड़े है।
दोहे – 111
कबीर टुक टुक देखता, पल पल गयी बिहाये। जीव जनजालय परि रहा, दिया दमामा आये॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है मै इस जीवन को क्षण-क्षण बीतते हुए देख रहा हूँ। मनुष्य माया के जंजाल में फँसा पड़ा है और काल ने कूच करने के लिये नगारा पीट दिया है।
दोहे – 112
काल जीव को ग्रासै, बहुत कहयो समुझाये। कहै कबीर मैं क्या करु, कोयी नहीं पतियाये॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है मृत्यु जीव को खा जाता है। और यह बात मैंने बहुत समझाकर कही है। लेकिन अब मैं क्या करु-कोई भी मेरी बात पर विश्वास ही नहीं करता है।
दोहे – 113
काल हमारे संग है, कश जीवन की आस। दस दिन नाम संभार ले,जब लगि पिंजर सांश॥
अर्थ – अर्थात मृत्यु सदा हमारे साथ-साथ ही है। इस जीवन की कोई आशा नहीं है। केवल दस दिन आपके पास है प्रभु का नाम सुमिरन कर लो। जब तक इस शरीर में सांस बचा है प्रभु का स्मरण कर लो।
दोहे – 114
कबीरा कुंआ एक हैं, पानी भरैं अनेक। बर्तन में ही भेद है, पानी सबमें एक।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है कि कुआ एक ही है जिससे सभी लोग पानी भरते हैं। इस संसार का मालिक एक ही है (पूर्ण परम ब्रह्म) । सभी लोग पानी भरते हैं लेकिन सभी लोगों का देने वाला दाता एक ही है। पानी एक है और बर्तनों में ही भेद है ।
दोहे – 115
चाकी चाकी सब कहें और कीली कहे ना कोए । जो कीली से लाग रहे, बाका बाल ना बांका होए।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है चाकी की तो सब बात करते है, लेकिन जो चाकी को घुमाने वाली कीली है, उसकी कोई बात नहीं करता। जो अनाज कीली के पास होते है वे तो बच जाते है। बाकी जो कीली से दूर रहते है वो पिस जाते है। उसी प्रकार जो ईश्वर या गुरु के पास होते है वही बच पाते है बाकि लोग इस संसार में पिस जाते है।
दोहे – 116
दुनिया ऐसी बावरी जो पत्थर पूजन जाय । घर की चक्की कोई ना पूजे जाका पिसा खाय।।
अर्थ – कबीर दास कहते है कि ये दुनिया कितनी बाबली (पागल/मुर्ख) है, जो पत्थर को पुजती है। लेकिन जिस चाकी में पिसने के बाद आटा मिलता है, वो घर की चाकी कोई नहीं पूजता है।
दोहे – 117
पत्थर पुजे हरी मिले, तो मैं पुजू पहाड। इससे तो चाकी भली, पिसा खाये संसार।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है कि अगर पत्थर पूजने से भगवान मिलता है, तो मैं पहाड पुजूँगा। छोटा पत्थर पूजने से अगर भगवान मिलता है, तो मैं बड़ा पत्थर (पहाड) पुजूँगा। इससे तो चाकी का पत्थर भला, जिसमे पिसने के बाद आटा मिलता है।
दोहे – 118
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह। जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
अर्थ : इस दोहे में कबीर जी कहते हैं इस जीवन में जिस किसी भी व्यक्ति के मन में लोभ नहीं, मोह माया नहीं, जिसको कुछ भी खोने का डर नहीं, जिसका मन जीवन के भोग विलास से मुक्त हो चूका है वही सही मायने में इस संसार का शहनशाह है।
दोहे – 119
जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि हैं मैं नांहि। सब अँधियारा मिटी गया , जब दीपक देख्या माँहि।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जब तक मै था यानि अहंकार था तब तक ईश्वर नहीं थे। अब हर जगह ईश्वर ही है मै तो मिट गया। और जब अपने अंदर के दीपक को देखा तो सारा अंधेरा मिट गया।
मै यह आशा करता हु, कि कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे (Kabir das ke dohe with Hindi meaning) आपको जीवन में आगे बढ़ने कि प्रेरणा देगी।
निवेदन- कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे आपको कैसा लगा, कृपया अपने comments के माध्यम से हमें बताएं और अगर आपको यह लेख अच्छा लगा तो जरूर share करे।
जरूर पढ़े- टाल्सटॉय की प्रसिद्ध कहानी- Leo Tolstoy stories in Hindi
Kabir ji ke dohe behtreen hain…great thoughts
thanks.
Bahot achchha he 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏💐💐💐💐🌸💐🌸💐🌸💐💐💐💐🌸
Super jay sant kabir 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏💐💐💐💐🌸💐🌸💐🌸💐💐💐💐🌸
Ye dohe dekhne mein 4 -4 line ke hain pr inme jo gyaan hai uski koi seema nhi hain
Inko pd le lgtaa hai jaise puri bhagvad geeta pd li ho
Jeevan ka sampoorna gyan hai har cheez in dohon mein
kabir je ne apne dohe bahut hi acche aur prerna dayak hai jo ki hume kuch shikhna chahiye
Kan kan me ishwar hai….
सत्य कहाँ आपने लेकिन उसका अनुभव नहीं मुझे।
Guru naam simar le, mukti milegi.
पहले तो इन दोहों का अर्थ समझो, फिर उसका भावार्थ समझते हुए किस रेफ़्रेन्स में कहा है वो समझो, फिर बन सके तो उन्हें अगर अपने जीवन में उतार पाओगे तो इनका पूरा फ़ायदा उठा पाओगे 🙏🏻☘️🙏🏻
यह ऐसे हैं जैसे गागर में सागर 🙏🏻🌴🙏🏻
श्रम से ही सब कुछ होत है, बिन श्रम मिले कुछ नाही। सीधे ऊँगली घी जमो, कबसू निकसे नाही॥🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏👍👍👍👍👍👍👍👍👍👍 thank you
Avinash ji aapka kam atyant hi sarahniy hai aise hi acche kam karte rahiye good luck
thanks